होली
होली आई , खुशियाँ लाई
खेले राधा सँग कन्हाई
फैन्के इक दूजे पे गुलाल
हरे , गुलाबी ,पीले गाल
प्यार का यह त्योहार निराला
खुश है कान्हा सँग ब्रजबाला
चढा प्रेम का ऐसा रँग
मस्ती मे झूम अन्ग-अन्ग
आओ हम भी खेले होली
नही देन्गे कोई मीठी गोली
हम खेले शब्दो के सँग
भावो के फैन्केगे रन्ग
रन्ग-बिरन्गे भाव दिखेन्गे
आज हम होली पे लिखेन्गे
चलो होलिका सब मिल के जलाएँ
एक नया इतिहास बनाएँ
जलाएँ उसमे बुरे विचार
कटु-भावो का करे तिरस्कार
नफरत की दे दे आहुति
आज लगाएँ प्रेम भभूति
प्रेम के रन्ग मे सब रन्ग डाले
नफरत नही कोई मन मे पाले
सब इक दूजे के हो जाएँ
आओ हम सब होली मनाएँ
सीमा सच, रचनाकार
दिन होली के
गीत फाग के, दिन मस्ती के
उलझन-झिड़क ज़बरदस्ती के
बौरे-बहके-गंधनशीले
रूप दहकते रंग गरबीले
धरते पाँव सँवार झूमते
जैसे हों कहार डोली के
दिन होली के।
टिमकी ढोलक, बजे मंजीरे
ताल-स्वरों के चरन अधीरे
ढप पर थाप, झाँझ पर झोके
मन मचले, रोके ना रोके
नचती राधा हुई बावरी
कान्हा कहीं किसी टोली के
दिन होली के।
उड़त गुलाल लाल भए बादर
आसमान रंगों की झालर
झरे अबीर चले पछवैया
आँगन बोले सोन चिरैया
मन के द्वार, नयन के पनघट
रंग बिखरते मिठबोली के
दिन होली के।
यतीन्द्र राही, रचनाकार
पवन बसंती
पवन बसंती संग जब, उड़ती धूल अबीर
आम-बौर, महुआ-महक, तन-मन करे अधीर
ऋतु बसंत बिखराए जब, उपवन में मकरंद
प्रणयनाद कर चूसना, भौंरे करें पसंद
ठंड घटी, गरमी बढ़ी, पवन मचाए शोर
टेसू की लाली सजे, जंगल में चहुँ ओर
पकी फसल चारों तरफ़, घर आएगा अन्न
होली पर्व जताए तब, होंगे कृषक प्रसन्न
मदमाते कानन, चमन, झरने, नदी, तलाब
टेसू, सरसों धरा का, चौगुन करें शबाब
टेसू, सरसों संग जब, दिखते पुष्पित बाग़
आने लगती याद तब, निज गाँव की फाग
टेसू की लाली भरा, सरसों का कालीन
मधुमासी बिखरे छटा, उस पर हो आसीन
होली प्रेम प्रतीक है, भावों का है मेल
इसे समझिए मत कभी, रंगों का बस खेल
फागुन फीका सा लगे, घर आए न कंत
जानूँ न इस विरह का, होगा कैसे अंत
सिमट रहा है दायरा, हुए पड़ोसी दूर
होली अब होली कहाँ, केवल है दस्तूर
मिलन हमारा कर सके, खुशियों की बौछार
तभी सार्थक मानिए, होली का त्यौहार
विजय किसलय, रचनाकार
फागुन और बयार
फागुन और बयार
ठंडी चले बयार,
गंध में डूबे आँगन द्वार
फागुन आया।
जैसे कोई थाप चंग पर देकर फगुआ गाए
कोई भीड़ भरे मेले में मिले और खो जाए
वेसे मन के द्वारे आकर
रूप करे मनुहार
जाने कितनी बार
फागुन आया।
जैसे कोई किसी बहाने अपने को दुहराए
तन गदराए, मन अकुलाए, कहा न कुछ भी जाए,
वैसे सूने में हर क्षण ही
मौन करे शृंगार,
रंगों के अंबार
फागुन आया।
-डॉ० तारादत्त ‘निर्विरोध`, रचनाकार
होली तो हो ली
नैनों के खारे फवारों की होली।
खेलो, न खेलो! होली तो हो ली।
दशानन अवध के सिंहासन चढ़ा है,
डुलाता चँवर राम पीछे खड़ा है।
लखन घिस रहा बैठकर लाल चंदन,
भरत पादुकाएँ लिए सो रहा है।
फटी है सिया की चुनरिया व चोली,
खेलो, न खेलो! होली तो हो ली।
लुटेरे लगे लूटने दिन-दहाड़े,
दिखाकर छुरे, बम, तमंचे, कुल्हाड़े।
हुई आज गाँधी-सरीखी ग़रीबी,
लँगोटी पहन, लाज अपनी उघाड़े।
लगा लो इसे राख या रंग-रोली,
खेलो, न खेलो! होली तो हो ली।
महाभोज होने लगा तिलचटों में,
बँटा देश बाज़ीगरों में नटों में।
बजी भूख की ढपलियाँ मरघटों में,
हुई प्यास रुसवा नदी-पनघटों में।
मुहर्रम-सरीखी लगे आज होली,
खेलो, न खेलो! होली तो हो ली।
भुवनेश कुमार, रचनाकार