भारत समेत दुनियाभर के फैशन डिजाइनर्स की नजर फरवरी 2019 में शुरू होने वाले लंदन फैशन वीक पर जमी हुई है. दुनियाभर के मशहूर डिजाइनर्स फैशन वीक में अपनी जगह बनाने के लिए जदृदोजहद कर रहे हैं. इस बीच एक खुशखबरी आई है भारत के लिए.
भारत की कारीगरी को लंदन फैशन वीक में जगह मिल गई है. अब यदि आपके जहन में सब्यसयाची, रितु मल्होत्रा, मनीष मल्होत्रा का नाम आ रहा है तो इन्हें भूल जाइए. क्योंकि फैशन वीक में भारत के नामचीन डिजाइनर्स की कलाकारी को मात दी है कर्नाटक में अनुसूचित जाति के तौर पर पहचाने जाने वाले लम्बानी समुदाय को.
लगभग 1.1 मिलियन तादाद वाले इस समुदाय को बंजारों की लिस्ट में शामिल किया गया है. इस समुदाय की महिलाएं कसूथी केल्सा, जो एक तरह की कढ़ाई है, उसमें पारंगत होती हैं. खास बात यह है कि इस विधा को कॉपी नहीं किया जा सकता. इसलिए जब फैशन वीक में कसूथी केल्सा को जगह मिली तो आदिवासियों का नाम भी ख्याति के तख्त पर है. पर गांव के एक कूचे से लंदन के रैंप तक पहुंचने का यह सफर इतना आसान भी नहीं था!
यूरोप में बसते थे समुदाय के पूर्वज
खानाबदोश लम्बानी जनजातियों को यूरोप के आर्य रोमा जिप्सी का वंशज माना जाता है, जो राजस्थान के रेगिस्तान में आने से पहले मध्य एशिया और अफगानिस्तान में रहते थे. आजीविका की तलाश में इन्होंने दक्षिण का रूख किया और कर्नाटक में नमक और अनाज का व्यापार शुरू किया. जब मुनाफा होता दिखा तो समुदाय की अधिकांश आबादी ने इसी राज्य को अपना घर बना लिया.
बंजारों के जिक्र के साथ ही बात होती है उनके नृत्य, संगीत, रंगोली, कशीदाकारी, गोदना और चित्रकारी जैसी कलाओं की. ऐसी ही खास बात लम्बानी आदिवासियों के लिए भी चर्चित है. यही वह समुदाय है जो शादी ब्याह के साजो सामान तैयार करता है, चमकीले हैंडलूम कपड़े पर कारीगरी उकेरता है. देखा जाए तो एक यही विधा है जिसने इस समुदाय की आजीविका को बरकरार रखा है.
एक शिक्षक ने जानी कद्र
अब बात आती है कि आखिर लम्बानी समुदाय की इस विधा को दुनिया भर में ख्याति मिलना कैसे शुरू हुई, क्योंकि भारत के हर राज्य में इस तरह की सैंकडों विधाएं अस्तित्व में हैं. समुदाय के लोग बताते हैं कि 1984 में बेल्लारी जिले के सांडुर में स्कूल शिक्षक महालक्ष्मी ने सबसे पहले आदिवासियों की इस कला में उनका सुनहरा भविष्य बुनता हुआ देखा. महालक्ष्मी ने समुदाय की महिलाओं को अपने घर का आंगन दिया, जहां वे सामुहिक रूप से बैठकर कढ़ाई कर सकें. कुछ दिनों में इस काम की ख्याति पूर्व मंत्री और सांडुर के पूर्व शाही परिवार के सदस्य एमवाई घोरपड़े तक पहुंच गई और उन्होंने इस कला को समर्थन दिया.
घोरपड़े की मदद से एसकेकेके की स्थापना हुई. जिससे लम्बानी समुदाय की महिलाओं को अजीविका चलाने का जरिया मिल गया. जब यह यूनिट शुरू हुई तो केवल 5 महिलाएं इसमें शामिल हुईं थी, लेकिन आज 15 गांव की करीब 400 से ज्यादा महिलाएं कसूथी केल्सा की कलाकारी कर रही हैं.
डिजाइनर्स के लिए तैयार किए परिधान
कला को प्रसार मिला तो कंसल्टेंट के तौर पर फैशन डिजाइनर्स ने भी उनकी मदद लेना शुरू किया. हालांकि आधुनिक कपड़ों पर अपनी सिग्नेचर कढ़ाई करने में थोड़ी उलझन हुई पर कुछ माह के प्रशिक्षण के बाद महिलाएं इस विधा में भी परंगत हो चुकी हैं. चमकीले रंगों के साथ कढ़ाई की सांडुर स्टाइल जैसे मूंगों पर कढ़ाई, मोती, सिक्के, शीशे और गुच्छा और भी बहुत कुछ है जिसे सजावट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. लैला त्याबजी और लक्ष्मी नारायण जैसे अनुभवी डिजाइनरों ने सांडुर कढ़ाई को नए ट्रेंड्स के साथ जोड़ने में मदद की है.
ये महिलाएं प्रोडक्ट्स की एक सीरीज (70 रुपये और 4,000 रुपये के बीच की कीमत) पर कढ़ाई करती हैं जैसे कि कुर्ता, दुपट्टा, बैग, तकिए का कवर और दीवार लटकन जैसे कई सारे प्रोडक्ट्स इसमें शामिल हैं. लम्बानी कढ़ाई वाले प्रोडक्ट्स अमेरिका, नीदरलैंड और जापान जैसे देशों को निर्यात किए जाते हैं.
पीढियों से चली आ रही परंपरा
यूनिट में सीता बाई जैसी बुजुर्ग महिलाएं भी हैं जो बीते तीन दशकों से काम कर रही हैं. सीता बाई कहती हैं कि मौजूदा पीढ़ी की महिलाएं साड़ी को प्राथमिकता देती हैं.वे सोचते हैं कि हमारी पारंपरिक पोशाक हर दिन पहनने के लिए बहुत भारी है और वे इसे केवल उत्सव के अवसरों पर पसंद करती है.”
सीता बाई की बहू लक्ष्मी बाई को शादी के समय अपने माता-पिता से कढ़ाई वाले चार जोड़ी कपड़े मिले थे. वह इस परंपरा को जारी रखना चाहती हैं भले ही इसमें कई महीनों का थकाने वाला काम शामिल हो. अब खुद अपनी बहू को कसूथी काम सिखा रहीं लक्ष्मी आगे कहती हैं, “हमारे समुदाय में बच्चे हमसे सीखते हैं क्योंकि हम इसे हर समय करते रहते हैं.”
अब बिखरेगा रैंप पर जलवा
यूनिट की गोवरी बाई बताती हैं कि उन्हें डिजाइनर्स की मदद से न्यू मैक्सिको के सैंट फे फोक आर्ट मार्केट में जाने का मौका मिला था. वहां हमें यह बताना था कि हम वास्तव में एक जनजाति हैं जिनकी अधिकतर दैनिक मजदूरी श्रम पर निर्भर हैं और कपड़े हमारी परंपरा का हिस्सा हैं. इसके बाद यूनिट और सदस्यों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. और अब लंदन फैशन वीक में रैंप पर चलने का मौका मिला है. इस विधा की पारंगत महिलाओं ने फैशन वीक के लिए परिधान डिजाइन करना शुरू कर दिया है.