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औलाद पाने का कारोबार: नि:संतान दंपति जल्दी मिलें!

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स्पेशल डेस्क। यदि आप नि:संतान हैं तो हमसे संपर्क करें…, निराश न हों नि: संतान दंपति…। ये वे पंच लाइन हैं जो आजकल के अखबारों के आखिरी पन्ने के लास्ट कॉलम से निकलकर अब फुल पेज विज्ञापन के साथ प्रकाशित हो रही हैं। इन चार शब्दों की ताकत वे समझ सकते हैं जिन दंपतियों के पास अपनी औलाद नहीं है और वे डॉक्टर से लेकर भगवान तक के दरवाजे पर माथा पकट चुके हैं।

भारत में इन दिनों नि:संतान दंपतियों को औलाद का सुख दिलवाने का वायदा करना और फिर वैज्ञानिक प्रक्रिया के आधार पर उन्हें माता-पिता होने का गौरव दिलाने का कारोबार जमकर फल-फूल रहा है। लाखों का ख़र्च और सफलता की दर केवल 30 प्रतिशत। ये कैसे इलाज हैं? इन्हें कौन कर रहा है? करने वालों पर नजऱ कौन रख रहा है? करवाने वालों की इच्छा इतनी प्रबल क्यों है? और इस सब में खतरा कितना है? इन सवालों के जवाबों में छिपी हैं दंपति, डॉक्टर, इलाज और कानून की कहानी।

गौरतलब है कि वर्ष 2002 में जब भारत सरकार ने देश में एआरटी (असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेकनीक) उद्योग पर पहला शोध किया तो इसे 250 क्लीनिक वाला 25,000 करोड़ रुपए का व्यवसाय पाया था। यह शोध स्वास्थ्य मंत्रालय के शोध संस्थान, इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने किया था। एआरटी उद्योग से जुड़ा सारा काम अब इसी संस्थान के जिम्मे है।

आईसीएमआर के प्रमुख साइंटिस्ट आर एस शर्मा कहते हैं कि यह उद्योग बहुत तेज़ी से फैल रहा है, हमारा ख्याल है कि देश में 2,000 से भी ज्यादा छोटे-बड़े क्लीनिक इनफर्टिलिटी के इलाज कर रहे हैं, इस अनुपात से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उद्योग का व्यवसाय भी कितना बढ़ गया होगा।

test tube Babyऐसी है प्रोसेस
एआरटी (असिसटिड रिप्रोडक्टिव टेकनीक) से गर्भ धारण करने के आर्टिफिशियल यानि कृत्रिम तरीकों को एआरटी कहा जाता है। इनमें आईवीएफ, एग डोनेशन और सरोगेसी समेत कई तरीके शामिल हैं। भारत में भी ऐसी शिकायतें सामने आने पर आईसीएमआर ने एआरटी क्लीनिक्स और बैंक्स की एक रजिस्ट्री तैयार करने का फ़ैसला किया।

test tube Babyयहां मिलेगी सही जानकारी
नेशनल रजिस्ट्री ऑफ एआरटी क्लीनिक्स एंड बैंक्स इन इंडिया की इस सूची में फिलहाल सिर्फ 192 क्लीनिक्स और सेंटर्स के नाम हैं। आईसीएमआर की वेबसाइट पर उपलब्ध इस सूची पर साफ लिखा है कि इसमें किसी सेंटर का नाम होने का मतलब ये नहीं कि उस सेंटर की सुविधाओं को आईसीएमआर ने जांचा है, बल्कि ये सिर्फ जानकारी का कोष है।

डॉक्टर आर एस शर्मा के मुताबिक़ वह और उनके दो सहयोगियों के काम करने की भी एक सीमा है। उन्होंने कहा, एक शोध संस्थान के पास इतने साधन नहीं हैं कि वो देश में काम कर रहे 2,000 से ज्यादा क्लीनिक्स की जांच कर सके। हम यह खाका बनाकर स्वास्थ्य मंत्रालय को देंगे और वो ही फिर जांच के लिए कोई इंतज़ाम करेगा।

वे मानते हैं कि क़ानून के अभाव में ज्यादातर क्लीनिक इस रजिस्ट्री में अपना नाम लिखवाने तक के लिए भी ख़ुद को बाध्य नहीं मानते। यानी अरबों रुपयों का उद्योग, पर निजी क्लीनिक पर कोई क़ानूनी रोक-टोक नहीं।

test tube Babyदिए जा चुके हैं निर्देश
वर्ष 2005 में आईसीएमआर ने एआरटी के तहत होने वाले इलाज के लिए दिशा-निर्देश बनाए। हालांकि इनका पालन क़ानूनी तौर पर अनिवार्य नहीं है और इनका उल्लंघन करने पर किसी व्यक्ति, संस्था या क्लीनिक को सज़ा भी नहीं हो सकती।

ब्रिटेन, फ्ऱांस, जर्मनी, इटली, जापान, कोरिया, मेक्सिको, नॉर्वे, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की समेत 29 देशों में एआरटी के इलाज के कायदों पर क़ानून बनाया गया है। अमरीका, पुर्तगाल, पोलैंड और फिनलैंड में क़ानून तो नहीं पर भारत की ही तरह दिशा-निर्देश बनाए गए हैं।

इन दिशा-निदेर्शों में इलाज करने वाले क्लीनिक के सामान और इलाज करने के उपकरण, डॉक्टर और नसज़् की योग्यता, इलाज की सही तकनीक, मरीज़ के चयन के लिए ज़रूरी टेस्ट और इलाज के ग़लत इस्तेमाल पर चेतावनी दी गई है।

test tube Babyअब तक पेश नहीं हुआ बिल
इस विधेयक में एआरटी के इलाज से जुड़े क़ायदों के उल्लंघन पर क्लीनिक के खिलाफ शिकायत करने के तरीके का उल्लेख और तीन से पांच साल की सज़ा का प्रावधान भी किया गया है। साथ ही मरीज़, अंडा दान करने वाली महिला या शुक्राणु दान करने वाले पुरुष, सरोगेट मां और सरोगेसी से पैदा हुए बच्चों के अधिकारों की भी जानकारी दी गई है। पर चार साल पहले बनाया गया यह बिल अभी तक संसद में पेश नहीं हुआ है।

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आईवीएफ की तकनीक से भारत में पहला बच्चा, हर्ष, अगस्त 1986 में मुंबई में पैदा हुआ था। 1988 में विश्व स्वास्थ्य संस्था (डब्ल्यूएचओ) के एक शोध के मुताबिक़ भारत में करीब सवा करोड़ से दो करोड़ दंपति बच्चे पैदा करने में असमर्थ थे। ज्यादातर दंपति इन्फेक्शन, टीबी या अन्य बीमारियों के इलाज के उपचार के बाद बच्चे पैदा करने में समर्थ होते हैं, लेकिन आईसीएमआर के मुताबिक़ कऱीब आठ प्रतिशत (10 लाख से 16 लाख के बीच) को एआरटी जैसे अति-आधुनिक इलाज की ज़रूरत होती है। साल 1988 में अनुमानित लाखों संतानहीन दंपतियों का यह आंकड़ा अब करोड़ की रेखा लांघ गया हो, तो अचम्भा नहीं होगा।

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