मुंशी प्रेमचंद्र गंगी का सत्रहवाँ साल था, पर वह तीन साल से विधवा थी, और जानती थी कि मैं विधवा हूँ, मेरे लिए संसार के सुखों के द्वार बन्द हैं। फिर वह क्यों रोये और कलपे? मेले से सभी तो मिठाई के दोने और फूलों के हार लेकर नहीं लौटते? …
Read More »साँप
“री, लक्खे तरखान के तो भाग खुल गए।” “कौण?… ओही सप्पां दा वैरी?” “हाँ, वही। साँपों का दुश्मन लक्खा सिंह।” “पर, बात क्या हुई?” “अरी, कल तक उस गरीब को कोई पूछता नहीं था। आज सोहणी नौकरी और सोहणी बीवी है उसके पास। बीवी भी ऐसी कि हाथ लगाए मैली …
Read More »बाज़ार बाज़ार
मैं तो पहचान ही नहीं पाया उन्हें। कहाँ वो अन्नपूर्णा भाभी का चिर-परिचित नितांत घरेलू व्यक्तित्व, और कहाँ आज उनका ये अति आधुनिक रूप! चोटी से पाँव तक वे बदली-बदली-सी लग रही थीं। वे कस्बे के नए खुले इस फास्टफूड कॉर्नर से जिस व्यक्ति के साथ निकल रही थीं, वह …
Read More »बारिश की रात
आरा शहर। भादों का महीना। कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात। ज़ोरों की बारिश। हमेशा की भाँति बिजली का गुल हो जाना। रात के गहराने और सूनेपन को और सघन भयावह बनाती बारिश की तेज़ आवाज़! अंधकार में डूबा शहर तथा अपने घर में सोये-दुबके लोग! लेकिन सचदेव बाबू की आँखों …
Read More »माँ आकाश है
बाप जहाज का मास्टर था। माँ एक अफ़सर की बेटी। दोनो का संयोग विवाह में बदला। दोनो बंदरगाह–बंदरगाह घूमे। समुद्र के साथ एक और सागर बहता चलता था। मदिरा का। जहाज़ पति चलाता पत्नी टावर में साथ बैठकर धीरे–धीरे चुस्की लेती। बीच–बीच में मास्टर भी गुटक लेते थे, प्यार में …
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