माँ मेरी लोरी की पोटली
माँ मेरी लोरी की पोटली,
गुड़ जैसी!!
मिट्टी पे दूब-सी,
कुहे में धूप-सी,
माँ की जाँ है,
रातों में रोशनी,
ख्वाबों में चाशनी,
माँ तो माँ है,
ममता माँ की, नैया की नोंक-सी,
छलके दिल से, पत्तों में झोंक-सी।
माँ मेरी पूजा की आरती,
घी तुलसी!!
आँखों की नींद-सी,
हिंदी-सी , हिंद-सी,
माँ की जाँ है,
चक्की की कील है,
मांझा है, ढील है,
माँ तो माँ है।
चढती संझा, चुल्हे की धाह है,
उठती सुबह,फूर्त्ति की थाह है।
माँ मेरी भादो की दुपहरी,
सौंधी-सी!
चाँदी के चाँद-सी,
माथे पे माँग-सी,
माँ की जाँ है,
बेटों की जिद्द है,
बेटी की रीढ है,
माँ तो माँ है।
भटका दर-दर, शहरों मे जब कभी,
छत से तकती, माँ की दुआ दिखी।
माँ मेरी भोली सी मालिनी
आँगन की!
अपनों की जीत में,
बरसों की रीत में,
माँ की जाँ है,
प्यारी-सी ओट दे,
थामे है चोट से,
माँ तो माँ है,
चंपई दिन में,छाया-सी साथ है,
मन की मटकी, मैया के हाथ है।
माँ मेरी थोड़ी-सी बावली,
रूत जैसी!
मेरी हीं साँस में,
सुरमई फाँस में,
माँ की जाँ है,
रिश्तों की डोर है,
हल्की-सी भोर है,
माँ तो माँ है,
रब की रब है, काबा है,धाम है,
झुकता रब भी, माँ ऎसा नाम है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
वो सिर्फ “माँ” है
निर्भिक होकर उड़ चल अपनी डगर को
अम्बर सा आँचल लिये, तुम्हारी “माँ” है
रँज-ओ-ग़म के बादल भी काफ़ूर हो जायेंगे
आशियाने में पास तुम्हारे, तुम्हारी “माँ” है
किसकी तलाश में भटक रहा है मदार-मदार
काशी क्या, हरम क्या, बस तुम्हारी “माँ” है
ममता की गहराई से हार गया समन्दर भी
देख तेरी मुस्कान, जी रही तुम्हारी “माँ” है
तेरे कदमों की आहट से बढ़ जायेगी धड़कनें,
जाने कब से इंताजर में बैठी तुम्हारी “माँ” है
कवियों की करतूतों से, भ्रमित न हो तू
मु-अत्तर गुल्सिताँ सिर्फ़ तुम्हारी “माँ” है
उपमाओं से ना बदल शख़्सियत ऐ ‘कवि’
उसे “माँ” ही रहने दे, वो तुम्हारी “माँ” है
अर्चना जी
कह री दिल्ली……
यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है…………..
यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती यूँ ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में
नित नए सपने बुने जाते यहा हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिटटी, चांद, सोना, सब यहा बाज़ार में है…
माँ मगर वो………………..
ओ मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर-की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते,
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है…
हां मगर वो…………
कह री दिल्ली ? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो……………………
निखिल आनंद गिरि
परवरिश
माँ बुलाया करती थी
हर ‘छठ’ में घर
वह कहती कि
मेरे लिए ही तो उठाया था व्रत
अपने इकलौते बेटे के लिये (!!!)
कई बार मैं गया
पर शायद हर बार नहीं
मेरी पत्नी तो कभी भी नहीं
उसे नहीं था (है) आस्था
मुझे भी नहीं था
पर मैं खींचा चला जाता था
माँ से मिलने के बहाने
या कोशिश करता जाने की
और पत्नी को मनाने की
पर आज ख़ुद को ही
गुनाहग़ार पाता हूँ
अपनी पत्नी में
’माँ’ के प्रति आस्था
नहीं जगा पाने का
हमारा बेटा विदेश में रहता है
और पिछले सात सालों में
एक बार भी नहीं
कभी-कभार
फोन से बात कर लेता है
वह भी अंग्रेजी में
कई बार बोलता हूँ आने को
पर शायद हर बार नहीं
और मेरी पत्नी के पास तो
कोई बहाना (?) भी नहीं है
उसे बुलाने का !!!!!
अभिषेक पाटनी
खैर, माँ तो माँ ही है ना….
आज बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर,
एक बीत चुके हादसे की तरह मालूम हुआ है
की मेरी बंद दराज की कुछ फालतू डायरियां
(ऐसा माँ कहती है, तुम्हे बुरा लगे तो कहना,
कविता से हटा दूंगा ये शब्द….)
बेच दी गयी हैं कबाडी वाले को….
मैं तलाश रहा हूँ खाली पड़ी दराज की धूल,
कुछ टुकड़े हैं कागज़ के,
जिनकी तारीख कुतर गए हैं चूहे,
कोइ नज़्म है शायाद अधूरी-सी…
सांस चल रही है अब तक…
एक बोझिल-सी दोपहर में जो तुमने कहा था,
ये उसी का मजमून लगता है..
मेरे लबों पे हंसी दिखी है…
ज़ेहन में जब भी तुम आती हो,
होंठ छिपा नहीं पाते कुछ भी….
खैर, मेरे हंस भर देने से,
साँसे गिनती नज़्म के दिन नहीं फिरने वाले..
वक़्त के चूहे जो तारीखें कुतर गए हैं,
उनके गहरे निशाँ हैं मेरे सारे बदन पर..
क्या बतलाऊं,
जिस कागज़ की कतरन मेरे पास पड़ी है,
उस पर जो इक नज़्म है आधी…
उसमे बस इतना ही लिखा है,
“काश! कि कागज़ के इस पुल पर,
हम-तुम मिलते रोज़ शाम को…
बिना हिचक के बिना किसी बंदिश के साथी….”
नज़्म यहीं तक लिखी हुई है,
मैं कितना भी रो लूं सर को पटक-पटक कर,
अब ना तो ये नदी बनेगी,
ना ये पुल जिस पर तुम आतीं…
माँ ने बेच दिया है अनजाने में,
तुम्हारे आंसू में लिपटा कागज़ का टुकडा…
पता है मैंने सोच रखा था,
इक दिन उस कागज़ के टुकड़े को निचोड़ कर….
तुम्हारे आंसू अपनी नदी में तैरा दूंगा,
मोती जैसे,
मछली जैसे,
कश्ती जैसे,
बल खाती-सी..
खैर, माँ तो माँ ही है ना..
बहुत दिनों के बाद जो लौटा हूँ तो इतनी,
सज़ा ज़रूरी-सी लगती है…
निखिल आनंद गिरि
माँएं नहीं मरतीं
माँ गर्मी की छुट्टियाँ होती है
जिससे शुरु होती है ज़िन्दग़ी
और हर साल
थके-हारे हम
भागकर लौट आते हैं उसी में
फिर बोर हो जाते हैं
और कुछ दिनों में जुलाई माँगते हैं
माँ,
हम बार बार छटपटाकर लौटते हैं
कैद होते हैं
तेरे नियमों, प्रतिबन्धों
और प्यारी सी सनक भरे निर्देशों वाले
प्यारे से घरौंदे में
और फिर
जाने क्यों रिहाई माँगते हैं;
माँ मन्दिर नहीं होती
न ही भगवान
नहीं जाना पड़ता उस तक जूते उतारकर
माँ हमारा अपना कमरा है
जो राह देखता है
साल भर / रात भर
हम चाहें लौटें या नहीं
और लौटकर
जूते पहने हुए ही पसर जाते हैं हम उसकी गोद में
और ज़माने भर का कीचड़
सुना देते हैं उस कमरे को
सने हुए कमरे
सुनती हुई माँएं
गुस्सा करते हैं कुछ देर
मगर कभी नाराज़ नहीं होते
नहीं फेर लेते चेहरा प्रेमिकाओं की तरह
नहीं कहते कि “तुम गन्दे हो, लौट जाओ”;
माँ इतवार की सुबह
टी.वी. पर आने वाली रंगोली है
जो देती है बहाना
पकौड़ियाँ खाते हुए साथ बैठने का
माँ, बैठकर-लेटकर गाया जा सकने वाला
राष्ट्रगान है
जिसे प्यार करने के लिए
सलामियों की जरूरत नहीं होती;
दिनभर की मेहनत के बाद
माँ चाँदनी तले की नींद है
भूखे महीने के बाद
वो सेंवईयों वाली ईद है;
माँ इतिहास है
जो दोहराती रहती है ख़ुद को
ये भूलकर
कि कल शाम ही बताया था उसने वह सब;
माँ है
माँ है
माँ है
वे कहते हैं कि माँ मर गई!
मेरे इस नीले-सफेद स्वेटर में
दीदी के कढ़ाई वाले दुपट्टे में
मेरे पागल ख़्वाबों में
बाबूजी की गर्म साँसों में
मेरी डायरी में लिखे सारे शब्दों में
खिड़कियों पर लगे सब परदों में
पीपल पे टंगे अल्हड़ झूले में
आँगन में गड़े मिट्टी के चूल्हे में
बगीचे में लगे गेंदे की क्यारियों में
करीने से सजी सब अलमारियों में
रसोई में खनकते सब बर्तनों में
पूजाघर में, ईश्वर के सब दर्शनों में
मेरी माँ है।
उनसे कह दो
कि गर्मी की छुट्टियाँ
मन्दिर-भगवान
मेरा कमरा
इतवार की सुबह
राष्ट्रगान
और इतिहास भी नहीं मरे अब तक
तो वो कैसे मर सकती है?
उनसे कह दो
कि माँएं कभी नहीं मरतीं।
गौरव सोलंकी