थके-थके से शब्द हैं तो भी
थके-थके से शब्द हैं तो भी
थके-थके से ही हैं शब्दों के संवाहक तो भी
मैं ही नहीं एक अकेला किंतु हैं और-और भी अनेकों
जिनके सीने में अंगार भरी सड़कें
बर्फ से ढंके हैं द्वीप उधार
बर्फ की चादर लपेट सोया है साहस
फैले हैं, फैले हैं अनलिखे पृष्ठ फैले हैं हर तरफ
शब्द-दर-शब्द, डर ही डर, बहशी हैं सब
और वे जो अहिंसा के पुजारी, महात्मा, महामानव
सिर्फ और सिर्फ मौके की प्रतिज्ञा में
प्रतिज्ञा मुझे भी, प्रतिज्ञा में मैं भी
कि जो भी है और हैं जितने भी वहशी
दे सकूं उन्हें एक कविता, एक दिन
अभी थका-हारा हूं तो क्या हुआ,
क्या हुआ थके-थके से शब्द हैं तो भी
छुक-छुक रेलगाड़ी-सी
चल रही है सांसें मेरी और जिंदा हूं मैं
राजकुमार कुम्भज
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मैं आजकल हकलाता क्यों हूं ?
मैं आजकल हकलाता क्यों हूं ?
जब पैदा हुआ था तो मां से डॉक्टरों ने यही कहा था
कि ये बच्चा सेहतमंद है और जुबान का पक्का भी
फिर मैं बात-बात पर आजकल हकलाता क्यों हूं ?
पता नहीं ये मुझे क्या होने लगा है
मैं जब-जब भी, अब, सच बोलने की कोशिश करता हूं
तो सचमुच हकलाने लगता हूं
पिछले दिनों की बात है कि जब मुझे
एक चुप्पै, बहुतै ही चुप्पै प्रधानमंत्री मिले थे
और एक इन दिनों की बात है की जब मुझे
एक बड़बोले, बहुतै ही बड़बोले प्रधानमंत्री मिले हैं
जो चुप्पै थे, वे सिर्फ चुप्पै ही रहते थे
कुछ और, कुछ और कभी नहीं करते थे
जो बड़बोले हैं वो सिर्फ बड़बोले ही रहते हैं
कुछ और, कुछ और कभी नहीं करते हैं
तब भी, बहुतै ही मारे गए थे अकारण ही
अब भी, बहुतै ही मारे जा रहे हैं अकारण ही
तब भी, बहुतै ही भूखे सोते थे अकारण ही
अब भी, बहुतै ही भूखे सो रहे हैं अकारण ही
तब भी, पूरे काम की पूरी मजूरी नहीं मिली थी
अब भी, पूरे काम की पूरी मजूरी नहीं मिलती है
तब भी, सच हार रहा था और जीत रही थीं साजिशें
अब भी, सच हार रहा है और जीत रही हैं साजिशें
मैं खोलना चाहता हूं भेद सब
मैं खेलना चाहता हूं नरमुंडों से
मैं खुलना चाहता हूं ज्वालामुखी की तरह
मैं थूकना चाहता हूं सच, काल के कपाल पर
मैं चूसना चाहता हूं तिजोरियों में जमा शब्द सभी
लेकिन जैसे-जैसे बढ़ता हूं जंगल-जंगल
याद करते हुए इतिहास के गलियारे, हकलाने लगता हूं
मैं आजकल हकलाता क्यों हूं ?
राजकुमार कुम्भज
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विडम्बना…
सिक्स लेन की सड़कों के बीच से
बड़ी-बड़ी आयातित कारों के बीच से
जब एक असहाय बचपन रोटी चिल्लाता है
फाइव स्टार होटल से निकला व्यक्ति
जिसे समझ नहीं पाता है
तब सामने खड़ा कामरेड फुसफुसाता है
यह विडम्बना है।
बर्गर और पिज्जा हटों के विज्ञापन के बीच में
‘मॉल’ और बहुमंजिलीय आवासीय कॉम्प्लेक्सों के बीच
जब कहीं एक छोटी सी खबर छपती है
महाराष्ट्र में भूख से तड़पकर एक किसान की मृत्यु होती है
जिसे पढ़कर ‘बद्धिजीवी’ बुदबुदाता है
यह विडम्बना है।
लेकिन मेरे नौजवान दोस्तों
होती रहेंगी यह विडम्बनाएं यूं ही
बिकते रहेंगे यह बचपन हूं ही
जब तक तुम में चिल्लाकर
कहने का साहस न होगा
झूठ को झूठ और सच को सच।
राकेशधर द्विवेदी
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प्रेम
कस्तूरी मृग नहीं देखे हमने
कस्तूरी गंध क्या होती है, मालूम नहीं
मन बना मृग-तृष्णा
कोई दिखा जाए कस्तूरी मृग
मन बावला न हो जाए ।
छुई-मुई सी होती है पत्तियां
कभी छू के देखी नहीं
डर था कहीं प्रेम की प्रीत
बंद न हो जाए पत्तियों सी ।
घर-आंगन में बिखरे दानों को
चुगती हैं चिड़ियाएं
चाहता हूं आहट न हो जाए
खनक चूड़ियों की, कर देती उनको फुर्र ।
प्रेम की तहों में
ढूंढता हूं यादों की कशिश
डर है मुझे किताब में
रखे गुलाब की सूखी पंखुड़ियों का
कहीं टूट कर बिखर न जाए ।
संजय वर्मा “दृष्टि “