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यादों में बसा है धनबाद से रांची का सफर

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टूरिज्म डेस्क। यह मेरी पहली यात्रा थी, झारखण्ड की। हरिद्वार से दून एक्सप्रेस से अपने दोस्त के संग चल पड़ा। पहनने-ओढऩे, खाने-पीने, पढऩे-लिखने और पूजा-पाठ के सामान से भरा एक बैग मेरी पीठ पर था। ट्रेन की लेट-लतीफी जारी थी लेकिन मेरा मनोरंजन स्टेशन पर आने-जाने वाले लोगों के चेहरे और गतिविधियां देखकर ही हो रहा था। आधा रास्ता पार करते-करते ट्रेन 4 घंटे लेट थी।

रास्ते में भोर पारसनाथ स्टेशन पर हो चुकी थी। सामने खड़ी पहाडिय़ों को देख सुखद आश्चयऱ् हुआ।सुबह-सुबह पहाडिय़ों का दर्शन एक ताजगी देने वाला अनुभव रहा। क्योंकि अब तक पिछले दिन भर मैदान, खेत और धरती-आकाश को मिलाते अनन्त क्षितिज को देखते-देखते मन भर गया था। ऐसे में, एक के बाद दूसरा और फिर तीसरा पहाड़ देखकर रुखा मन आह्लादित हो उठा।

धनबाद पहुंचते ही ट्रेन रांची के लिए तुरंत मिल गयी थी। 11 बजे धनबाद से राँची के लिए चल पड़े। धनबाद से राँची तक का वन प्रांतर, खेत, झरनों, नदियों, कोयला खदानों व पर्वत शिखरों के संग ट्रेन सफर काफी रोमांचक होता जा रहा था।

रास्ते में स्टेशनों के नाम तो याद नहीं, हाँ साथ में सफर करते क्षेत्रीय ज्वैलर बब्लू और पॉलिटेक्निक छात्र अमर सिंह का संग-साथ व संवाद याद रहेगा। इनके साथ आटा, गुड़, घी से बना यहाँ का लोकप्रिय ठेकुआ, आदिवासी अम्मा द्वारा खिलाए ताजे अमरुद और कच्चे मीठे आलू का स्वाद आज भी ताजा हैं। स्टेशन पर इडली और झाल मुईं यहाँ का प्रचलित नाश्ता दिखा। साथ ही यहाँ राह में ठेलों पर कमर्शियल सेब खूब बिक रहा था, जिसे हमारे प्रांत में पेड़ से तोड़कर शायद ही कोई खाता हो।

रास्ते में हर आधे किमी पर एक नाला, छोटी-छोटी नदियों के दर्शन अपने लिए एक बहुत ही सुखद और रोमांचक अनुभव रहा। इनमें उछलकूद करते बच्चे, कपड़े धोती महिलाएं औऱ स्नान करते लोगों को देख प्रवाहमान लोकजीवन की एक जीवंत अनुभूति हुई। खेतों में पक्षी राज मोर व तालावों में माइग्रेटरी पक्षियों के दर्शन राह में होते रहे।

इस क्षेत्र की बड़ी विशेषता इसकी अपनी खेती-बाड़ी से जुड़ी जड़ें लगी। धान की कटाई का सीजन चल रहा था। कहीं खेत कटे दिखे, तो कहीं फसल कट रही थी। कहीं-कहीं ट्रेक्टरों में फसल लद रही थी। धान के खेतों में ठहरा पानी जल की प्रचुरता को दर्शा रहा था। यहाँ की प्रख्यात पारम्परिक जाटू चाबल, राजमा दाल जैसी फसलें दुर्लभ फसलें भी पैदा की जाती हैं।

ट्रेन सघन बनों के बीच गुजर रही थी, हवा में ठंड़क का स्पर्श सुखद अहसास दे रहा था। स्थानीय लोगों से पता चला कि रात को यहाँ कड़ाके की ठंड पड़ती है। रास्ते में बोकारो स्टील प्लांट के दूरदर्शन भी हुए। पता चला कि बोकारो का जल बहुत मीठा होता है।

राँची से कुछ कि.मी. पहले बड़े-बड़े टॉवर दिखने शुरु हो गए। बढ़ती आबादी को समेटे फूलते शहर का नजारा राह की सुखद-सुकूनदायी अनुभूतियों पर तुषारापात करता प्रतीत हुआ। बढ़ती आबादी के साथ पनपती गंदगी, अव्यवस्था और स्थानीय आबादी में बिलुप्त होती सरलता-तरलता मन को कचोट रही थी।

सच ही किसी ने कहा है जितना हम प्रकृति के करीब रहते हैं, उतना ही संस्कृति से, अपनी जड़ों से जुड़े होते हैं औऱ जितना हम प्रकृति से कटते हैं, उतना ही हम खुद से और अपनी संस्कृति से भी दूर होते जाते हैं। रास्ते का यह विचार भाव रांची पहुंचते-पहुंचते सघन हो चुका था और स्टेशन से उतर कर महानागर की भीड़ के बीच मार्ग की सुखद अनुभूतियाँ धुंधली हो चुकीं थीं।

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